रोजगार, महज एक पैसा कमाने के जरिये का नाम नहीं वरन स्वय पर आत्मविश्वास, और कुछ करने का शुकून भी है. यह आपको समाज में आपको एक वकार दिलाता है. एक हैसियत दिलाता है. रोजगार की हालात सिर्फ उ.प्र. में ही नही वरन पूरे भारत वर्ष में काफी उत्साहवर्धक नही है. क्यूँ नही है? इसके लिए समाजशास्त्रियों के पास बहुत सारे उत्तर है. परन्तु फिर बात वहीं आती है कि उत्तर से पेट भरता है? उ.प्र. की कुल जनसँख्या 19,95,81,447 है. अगर “पीएच. डी. रिसर्च” की माने तो २०११ तक प्रदेश में ८% बेरोज़गारी है. वैसे बेरोजगारी भत्ता के लिए कुल ९ लाख नामांकन हुए है. अतः कम से कम इतने लोग तो शिक्षित बेरोगार है. इसके अलावा इसमें मनरेगा में करीब १४५९५२४९ लोग कार्यरत है. कुल मिलकर वास्तविक बेरोजगारों की संख्या करीब २०० लाख के आसपास बैठती है.
ये सारी संख्या कुल मिलाकर प्रदेश की जनसँख्या के १७% है. अगर ये सवाल किसी शासन कर रही पार्टी से पूछा जाये, तो दोष पिछली सरकार का होगा और पिछली सरकार के किसी नेता से पूछा जाये तो शासन कर रही सरकार का दोष बता के दायित्वमुक्त हो जायेगा. परन्तु उत्तर ये है कि पार्टियों को जनसँख्या सिर्फ वोट बैंक के अलावा कुछ और नही दिखती. जो महान समाजशास्त्री है वो कुछ और कारण बता के संतुष्ट हो जाएंगे पर बुनियादी हालत फिर भी वो ही रहेंगे. यहाँ पर कुछ प्रसंगों का जिक्र करना काफी मुनासिब लग रहा है. एक सरकार के ज़माने में काफी पैसा मूर्तियों के निर्माण में बहाया गया. जिसके लिए ये तर्क दिया गया कि दलितों को रोजगार के लिए किया गया है. जब ये बात किसी भी आम आदमी को भी पता होगी कि उसकी जगह अगर कोई बड़ा इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर दिया गया होता तो वो दलितों ही नही उनकी आने वाली नश्लों के लिए भी रोजगार होता. तो वो सररकार जिसके अंतर्गत जाने कितने प्रशाशनिक अधिकारी व् नजाने कितने विद्वान् आते है, को क्यूँ नही समझ आती है?
दूसरा उदाहरण एक दूसरी सरकार के द्वारा मिलता है, उसने शिक्षा के क्षेत्र में काफी नए प्रयोग करने का श्रेय है, उसमे से मै सिर्फ दो महान कदमो का जिक्र करना चाहूँगा. पहला तो नक़ल करने में छुट और दूसरा बेरोजगारी भत्ता का दान. नक़ल करने से रोकने के तरीके उस सरकार को जरा कम पसंद आया अत: उन्होंने इन तरीकों को हटा कर नकल में खुली छुट दे दी. नतीजतन, वो छात्र जो अपनी मेहनत के बूते पे ४०-४५% लता अब वो ६०-६५% लता है. लेकिन उसके स्वयं पर आत्मविश्वाश २०% से भी निचे पहुच जाता है. सोने पे सुहागा ये कि उसको अब बेरोजगारी भत्ता भी मिलेगा. यानि प्रदेश कि कुल जनसँख्या का एक खास हिस्सा एक तरह के परिजिवी का जीवन यापन करे. वो सिर्फ किसी तरह जीने का हक रखता है. राष्ट्रनिर्माण में उसका योगदान हो या न हो ये सब फालतू बातें है.
सवाल ये है कि क्या किसी के पास इतनी भी फुर्सत नही है जो कि इस मुद्दे पे गंभीरता से सोचकर एक ऐसे योजना बनाये जिसका परिणाम सारभौमिक हो? परदेश के हर व्यक्ति के पास इस सवाल का एक जबाब होगा परन्तु जबाब ऐसा हो जो सबके लिए हो तथा “उस प्रदेश” जो कि सबसे ज्यादे कार्यशील जनसँख्या रखता है का समुचित दोहन हो सके. तथा यहाँ के नौजवान एक सम्मानपूर्ण जीवन जी सकें. यह कोई ऐसा भी यक्ष प्रश्न नही है जिसका उत्तर अभी तक बना ही नही. पिछले दशक में ह्युमन डेवेलोपमेंट इंडेक्स के हिसाब से यह भारत में १३वें स्थान पर है. तथा सबसे कम आर्थिक तौर पर उन्नत कि श्रेणी में आता है.
इससे पहले कि इस प्रश्न का उत्तर तलाश किया जाये, सबसे पहले हमें अपने संसाधनों की उपलब्धता पर एक विहंगम दृष्टिपात आवश्यक है. हमारे यहाँ सबसे लम्बा नदियों का जाल है जिसकी कुल लम्बाई लगभग २९००० किमी है. इन नदियों की बहुत सी सहायक नदियाँ है जिसमे मानसून के मौसम में सिर्फ बाढ़ आती है और फसलें बर्बाद होती है. बाकि दिनों में उसमे जलकुम्भी या सेवर जैसी जलीय घासें पनपती है. इसके अलावा हम इनका कोई दूसरा उपयोग नही कर पाते है. यदि हम इन प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का समुचित दोहन कर पायें तो भी प्रदेश की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार होने की संभावना है.
इसके अलावा हमारे पास सबसे अधिक कार्यशील जनसँख्या है. आज जिन नवजवानों को बेरोजगारी भत्ता दिया जा रहा है अगर उन्हें एक समुचित प्रशिक्षण की व्यवस्था कर देते तो वो आत्मनिर्भर होने के साथ साथ एक सम्मानपूर्ण जीवन भी जी सकते. हा ऐसे व्यवस्था हमे उनके घर के पास ही देनी पड़ेगी जिससे की वह शुरुआती दौर में होने वाले कम आय में भी अपना जीवन जी सकें. उदाहरण के तौर पर हम अगर मात्र ५० लाख रू खर्च करके एक मोबाइल प्लांट टिसू कल्चर लैब बना कर एक महीने में सिर्फ ८० नवजवानों को प्रशिक्षित करें. तो साल भर में ९६० नवजवानों के सम्म्न्पूर्ण जीविका की व्यवस्था की जा सकती है. यह तो मात्र एक उदाहरण मात्र है. इसी तरह की हर क्षेत्रों में प्रचुर संभावनाएं है जिनका दोहन किया जा सकता है.
लगभग एक साल में करीब २५ महाविद्यलों में करीब ७०००-८००० छात्रों की करियर काउंसलिंग करने के बाद कई सारी नई बातें सामने आई. शिक्षा व्यवस्था का पुनरवलोकन भी एक अतिमहत्वपूर्ण कड़ी है जिस की तरफ हम देखने से भी डरते है. हम सबको शिक्षित बना रहे है जो की एक नए समाज का निर्माण कर सकते थे अगर वो उस शिक्षा को भी ईमानदारी से ग्रहण किया होता तो, लेकिन उनको चाहिए एक अदद नौकरी और वो समाज बनाने की कला सिख रहे है. आज भी भारत के विभिन्न शहरों में निजी क्षेत्रों में काफी मात्र में नौकरियां है लेकिन निजी क्षेत्रो को सामान बनाना है समाज नही. हम शिक्षको की न्युक्ति पर काफी पैसा खर्च करते है लेकिन एक करियर काउंसलर की व्यवस्था नही कर सकते है जो की नवजवानों कम से कम ये तो बताये की उसके पास आखिर क्या कुछ करने की संभावनाएं है तथा उनका वो कैसे लाभ उठा सकता है? हमारी समझ से ये नवजवानों को शिक्षित करने से भी जयदे महत्वपूर्ण है कि पहले वो ये जाने कि उनके लिए क्या करना सबसे उपयुक्त रहेगा? जिससे कि उनकी उर्जा का सम्पूर्ण लाभ समाज को मिल सके.